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बुधवार

शहंशाह आलम की दो ताज़ा कविताएँ..



बरसात

बरसात में सबकुछ बहुतकुछ
धुल रहा था धीरे-धीरे

धुल रहा था जैसे अतीत
धुल रही थी जैसे आत्मा बेचैन
धुल रहा था जैसे
मन का दुष्चक्र

पेड़ पहाड़ बाघ घर जल अनंत
सब धुल रहे थे
बरसात में इस बार

धीरे-धीरे जैसे
धुल रहा था मैल
देह पर का
           *
उसने मुझे साधा था

वह पानी की तरह तरल थी
ठोस थी पत्थर की तरह

वह गूंजती थी झरने जैसी मुझी में

उसने मुझे साधा था
कुछ इस तरह से
कि मैं उच्चारता
उसकी छातियों के समुद्र को
उसकी देह के जल को

उच्चारता था इस पूरे समय को
इस पूरे जीवन को लयवद्ध
उसी को भुजाओं में भींच
              * *
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