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मंगलवार

जाबिर हुसेन की कविता : एक दिन बच्चों ने पूछा..




क दिन बच्चों ने पूछा कैसे लिखते हैं पापा समुद्र
फिर पूछा कैसे दिखते हैं पापा समुद्र

इसी तरह कभी पूछा था बच्चों ने
कैसे लिखते हैं पापा नदी कैसी होती है नदी

नदी की कल्पना आसपास थी मेरे
नहीं हुई कोई ख़ास दिक्क़त बच्चों को बताने में
कैसी होती है नदी
पर समुद्र मेरी कल्पना से परे था
उस दिन मैंने बच्चों के सवालों से
अपनी आंखें चुरा ली थीं

कई बरस बाद
जब मेरी उम्र ने थोड़ी फुर्सत पाई
मैंने दर्शन किए समुद्री शहरों के
कई-कई दिन कई-कई रातें
गुज़ारीं समुद्री लहरों के साथ
मीलों गया समुद्र का सीना चीर
देखा कैसे चलती हैं समुद्र में पोतें
कैसे निकालते हैं समुद्र की गहराइयों से
ज्वलनशील पदार्थ
कैसे पकड़ते हैं समुद्री मछलियां बिछाते हैं जाल
कैसे अग़वा कर ली जाती हैं समुद्री नावें
आज़ाद मछुआरे कैसे बना लिए जाते हैं बंदी
टिकाते हैं मछुआरे तूफानी लहरों पर
कैसे अपनी नौकाएं गाते हैं गीत
डोलती नावों पर कैसे बेख़ौफ करते हैं नृत्य
कैसे चुन-चुन लाते हैं
समुद्री थपेड़ों से बनती रेत-आकृतियां
कैसे दूर कहीं
समुद्री टावरों पर
जलते हैं सुरक्षा के दीप
खड़ा होता है बंदूकें दूरबीनें ताने अकेला कोई प्रहरी
कैसे पैदा होती है समुद्री लहरों की मदद से ऐटमी उर्जा
कैसे दूर करते हैं समुद्री जल से उसका खारापन
और पाईप में भर-भर
कैसे बेचते हैं उसे बाज़ारों में

कैसे तट पर तैरती हैं तृष्णाएं
केसे खुलती हैं रंग-बिरंगी बोतलें
कैसे धुएं में पिघलती है तरुणाई
कैसे नशे में डूबती हैं आत्माएं
गुब्बारे कैसे उछलते हैं आसमानों में
कैसे बजती हैं धड़कनें एकदम से तेज़ कर देने वाली धुनें
कैसे सुलगती है आग कैसे बुझती है राख

रेतीली ज़मीन पर समुद्री हिलकोरों के बीच
कैसे थिरकती हैं परियां
कैसे फैलती-सिमटती हैं उनकी पोशाकें
ढंक जाते हैं कैसे
जिस्मों से उनके जिस्म

कैसे डूबता-उबरता है
लंबी दूरी तय करके आने वाला कोई थका जहाज़
कैसे धंस जाते हैं कभी
रेत में उसके आहनी डैने

कैसे विराजती हैं समुद्री गुफाओं में आस्थाएं
जिंदा रहती हैं किंवदंतियां
कैसे सिमट आती हैं एक पल में
हज़ारों साल की दूरियां
मैंने देखा कैसे पिघल जाती हैं चट्टानें
उभर आते हैं द्वीप

कैसे तय होते हैं समुद्री तट पर बने
सितारा होटलों सी-रिसार्टों में सौदे
कैसे होती है सिक्कों की लेन-देन अदलाबदली

सब कुछ देख कर लौट आया हूं
इस शाम मैं अपने गांव
मेरी आंखों में बसी है
अनुभव की एक विशाल दुनिया
अपने बच्चों को बताने उन्हें समझाने
बरसों पूर्व पूछे गए उनके सवालों के जवाब

इस शाम मैं लौट आया हूं अपने गांव
मैंने आवाज़ दी है अपने बच्चों को
बारी-बारी नाम उपनाम से पुकारा है उन्हें

कुहासे और धुंध में ढंकी हैं
मेरे गांव की दीवारें
लौट आई है मेरी आवाज़
घर के आगे खड़े पुराने पेड़ की शाखें
सहलाती हैं मेरे कंधे कहती हैं शायद

बच्चे तेरे अब नहीं रहे बच्चे
हो गए हैं बड़े
सपनों में उनके नहीं रह गया है समुद्र
जान गए हैं वो बड़े होकर
कैसे लिखते हैं समुद्र कैसे दिखते हैं समुद्र

जाबिर हुसेन: साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित एवं साहित्यिक पत्रिका ’दोआबा’ के संपादक हैं।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

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