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मंगलवार

...जैसे गाँव में महाजन का उधार। धूप: अमरेन्द्र की कविताएँ


 मेरी सूरत भय से
पसीने से सनी हुई है;
    - वजह यह है
मेरे सर पर
धूप की तलवार तनी हुई है।

 ड़ी धूप का दिन
कुछ इस तरह से नागवार गुजरा,
    -जैसे मय्यत पर मुजरा

 क बात
जो अब सरे आम
जाहिर हो गयी है
कि जाड़े की धूप ने
अपना धर्म बदल लिया है
               - काफिर हो गई हैं।

जेठ की दुपहरी में
अंग-अंग पर धूप की यह मार,
बड़ी असहनीय है दोस्त
जैसे- गाँव में
    - महाजन का उधार। 
-डा. अमरेन्द्र, भागलपुर.
मोबाइल- 09939451323.

रविवार

कलम की जमीन से रू-ब-रू कराता ‘रू’


आज के हिन्दी साहित्य और गाँवों के यर्थाथ से रू-ब-रू करता हुआ ‘रू’ अपने आप में बेमिशाल है। गजव तेवर है इसका। ग्रामीण परिवेश को हिन्दी साहित्य में ढ़ालने के लिए टकसाल के बदले ‘लोहसारी’ का प्रयोग ग्राम्य यथार्थ को चित्रित करता है। विषय सूची में धार, फाल, चबूतरा, चास-दोखार, कछार, पैराव, चैता, पुरवा, अमोला, बाँगुर, वृक्षता, पतवार, जिरात, मंच एवं रोपनी शीर्षक देकर विषय-वस्तु को गाँव के करीब लाने का नितान्त अभिनव प्रयोग है। ‘रू’ ग्राम्य-यथार्थ का ऐसा ही पिटारा है- जिसमें खेतिहर समुदाय, मजदूर-किसान, किसान आन्दोलन, नगर बनाम आधुनिकता और परम्परा का अन्तर्द्वन्द, साहित्य सृजन में गाँवों की उपेक्षा, लोकधर्मी कविता में युवा परिदृश्य आदि वर्तमान समस्याओं पर विचार संकलित हैं, सुरक्षित हैं। कविताओं और कहानियों का चयन भी बहुत ही सलीके से किया गया है। सुदूर गाँव में अपने सम्पादकीय कार्यालय में बैठकर सम्पादक ने सृजन का जो ताना बाना बुना है वह उनकी अटल संकल्प शक्ति का परिचायक है। इस सफल आयोजन के लिए युवा कवि कुमार वीरेन्द्र को साधुवाद ।
रू
संपादकः कुमार वीरेन्द्र
ग्राम-भकुरा, पोस्ट-फरना
जिला-भोजपुर, आरा-802315. बिहार
मोबाइल-09199148586.

बुधवार

लोक संस्कृति के ऐतिहासिक विकास की दस्तावेज़ ‘मड़ई’- 2010



लोक संस्कृति की अस्तित्व रक्षा, उसके संरक्षण - संवर्द्धन की चिन्ता, उसकी सार्थकता को पग-पग पर चिह्नित करते हुए उसकी नई अवधारणा विकसित करने में ‘मड़ई’ की महती भूमिका है।
मड़ई-2010 का यह अंक लोकनाट्य पर केन्द्रित है। लोकनाट्य मानव जाति की सामूहिक सर्जनात्मकता को अभिव्यक्त करने में सर्वाधिक सक्षम विधा है। सैतालिस गवेष्णात्मक एवं शोधात्मक आलेखों से सुसज्जित इस अंक में लोकनाट्य के विभिन्न रूपों और शैलियों को रूपायित ही नहीं किया है- बल्कि लोक संस्कृति में आधुनिक चिन्तन एवं विचारों को भी विस्तार दिया गया है। इस प्रकार हम देख रहे हैं कि लोक संस्कृति की भूमिका की आधार भूमि अब ठोस धरातल का स्वरूप ग्रहण कर रही है। 
यह अंक सम्पूर्ण भारत की लोक संस्कृति के ऐतिहासिक विकास एवं वैभवशाली परम्परा का अनमोल दिग्दर्शन है। 
इस क्षेत्र में ‘मड़ई’ परिवार की अटल प्रतिवद्धता सफल हो, सार्थक हो,- यही कामना है।   

मड़ई
सम्पादक: डा. कालीचरण यादव
बनियापारा, जूना बिलासपुर, बिलासपुर-495001.
मो.- 098261 81513.

शुक्रवार

शहंशाह आलम ने सुनायीं अपनी बिल्कुल ताजा कविताएं - ‘औचक हुई उसकी हत्या’ और...

- कवि शहंशाह आलम के साथ अरविन्द श्रीवास्तव.

मित्रों, इधर तीन दिनों तक पटना प्रवास पर था। वरिष्ठ कवि अरुण कमल और  शहंशाह आलम का सानिध्य मिला। अरुण दा ने भेंट की ढ़ेर सारी पत्रिकाएँ तो शहंशाह आलम ने सुनायी अपनी बिल्कुल ताजा कविताएं ! उनकी अप्रकाशित कविताएं ‘जनशब्द’ पर मित्रों के लिए-

औचक हुई उसकी हत्या

औचक हुई उसकी हत्या
भोजनावकाश का समय रहा होगा
जब वह देख रहा था
इधर रिलीज हुई फिल्मों के पोस्टर

क्या मालूम उस बेचारे को 
कि हत्यारे को भी लगती थी भूख।

बहुत कुछ गुजरता है

मूंगफली बेचता वह अभी-अभी
शहर से समुद्र तक गया
जैसी गयी चिड़िया पृथ्वी से आकाश तक

ध्वनि से तेज बहुत कुछ गुजरता है
हमारी आपकी बगल से

इन घटनाओं से विस्मित यह समय
जैसे अचानक बारिश से बिस्मित-चकित
सारे ग्रह सारे नक्षत्र सारे यात्री

सूट-बूट पहने अद्भुत हत्यारा भी
गुजरा अभी-अभी इसी काल-अकाल से।

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