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सोमवार

‘मड़ई’ का यह अंक



स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सांस्कृतिक नवचेतना तथा वर्तमान भारतीय रंगमंच को समृद्ध करने मे लिए कई कलाकारों ने अपने को समर्पित किया। अपनी रंग प्रतिवद्धता व विशिष्ठ रंग रचना के लिए चार नाम प्रायः लिए जाते हैं -ये हैं शंभु मित्र, उत्पल दत्त, इब्राहिम अल्काजी और हबीब तनवीर। ये लोक मंच के अनमोल धरोहरें हैं । लोकरंग कर्म के अतिरिक्त लोक गीत, लोक कथा, लोकाख्यान आदि लोक साहित्य भी भारतीय लोक जीवन और लोक संस्कृति के अविच्छिन्न अंग है। ‘मड़ई’ इन्हीं लोक संस्कृतियों को सहेजे कर रखने का जो स्तुत्य कार्य कर रहा है वह भारतीय प्रिंट मीडिया के विकास का एक गौरवशाली अध्याय है। प्रस्तुत अंक ‘मड़ई’- 2009 में लोक साहित्य - संस्कृति से जुड़े 38 आलेखों के खोजपूर्ण भंडार हैं -जो समग्र रूप में भारतीय क्षेत्र की विभिन्न भाषाओं, लोक जीवन और लोक संस्कृति पर गहन प्रकाश डालते हैं। यह अंक भावी पीढीयों में सांस्कृतिक आत्मविश्वास भरने में सक्षम होगा- यही आशा की जाती है। सारे आलेख पठनीय, मननीय तथा स्तरीय हैं। इसकी उपयोगिता हर काल में बनी रहेगी।

मड़ई
सम्पादक: डा. कालीचरण यादव
बनियापारा, जूना बिलासपुर, बिलासपुर-495001.
मो.- 098261 81513.

शुक्रवार

समय के खुरदरे चेहरे को बेनकाव करती ‘और अंत में एक बारीक-सा परदा’



‘और अंत में एक बारीक-सा परदा’ कथा लेखिका उषा ओझा की पन्द्रह कहानियों का समुच्य है, ये कहानियाँ भाषिक चमत्कार से बचते हुए पतझड़ का प्रतिरोध करती है। संवेदनाओं एवं वैचारिकता के द्वन्द से बुने गये इस ‘परदे’ में कई रंग-बदरंग शेड्स हैं जो समय के कैनवस को कोमल-कठोर अनुभूतियों का एलबम-सा बनाते हैं। ये कथाएँ समकालीन कथा परिदृश्य में नवीनता का अहसास कराती है। कहानियों में विषयगत वैविध्य है तो कला-शिल्पगत वैविध्य भी। संग्रह की तमान कहानियों का कथ्य-शिल्प अंततः जड़ व्यवस्था के विरूद्ध मुख़ालफत का परचम लिए खड़ा दिखता है। उषा ओझा की कथाएँ कथा क्षितिज पर अपना मुकम्मल स्थान बनाती है। 
समकालीन कथा लेखन में उषा ओझा का हस्तक्षेप अक्सर दिख जाता है- हंस, कथादेश, कथाक्रम, जनपथ  आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित इनकी कहानियाँ पठनीय हैं। ‘जूही की बेल’ कहानी संग्रह एवं ‘बहाव’ उपन्यास के बाद ‘और अंत में एक बारीक-सा परदा’ से इन्होंने कथा-जगत में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज की है, जो स्वागतेय है।

- उषा ओझा
फ्लैट नं. 3, ब्लाक नं. 15
अदालतगंज, पटना- 1.
मो. 09835217799.

मंगलवार

शांति यादव की दो ग़ज़लें





हंडी में फिर पत्थर खदका
बच्चा थोड़ी देर को चहका। 
मां ने ली झूठी अंगड़ाई
मानो घर खुश्बू से महका।
सोये बच्चे सुबक-सुबक जब
ज़ख़्म पुराना धीरे टहका।
आंखों के तूफां से डरकर
आंचल चुप-चाप नीचे ढलका।
कहती है सरकार बेधड़क
यहाँ न कोई भूखा मरता।

झुलसी फसलें, खलिहानों में रेत लिखेंगे
लिखने वाले सोच रहे हैं खेत लिखेंगे।
नेता जनता के बूते की बात नहीं 
ठेठ हकीकत, संविधान अब सेठ लिखेंगे।
संरक्षण है वन्य प्राणियों को कानूनन
आदम की बस्ती में अब आखेट लिखेंगे।
मंडी में कागज के ऐसे भाव लगे हैं
छोड़ कहानी-कविता बस हम ‘रेट’ लिखेंगे।
आंखों में बस एक तिरंगा औ होंठों पर
जन-गण-मन कबतक खाली पेट लिखेंगे।

शांति यादव - 'चुप रहेंगे कब तलक’ एवं ‘उदास शहर में’ नाम से ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित।
सम्पर्क- इन्द्रधनुष, बायपास रोड, मधेपुरा, बिहार।
मोबाइल:- 09431091815.
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